रविवार, 18 अगस्त 2013

सूर्य आदित्यहृदयस्तोत्रम्

सूर्य आदित्यहृदयस्तोत्रम्

सूर्य आदित्यहृदयस्तोत्रम्

सूर्य संबंधी समस्ता बाधाओं को दूर करने के लिए प्रतिदिन प्रात:काल आदित्यहृदयस्तोत्र का पाठ करना बहुत ही अनुकूल लाभदायक रहता है और कठिन से कठिन समस्याओं का निवारण हो जाता है।

॥ पूर्व पीठिका ॥

ततो युध्दपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम् ।

रावणं चाऽग्रतो दश्ष्टवा युध्दाय समुपस्थितम् ॥1॥

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् ।

उपगम्याऽब्रवीद् राममगस्त्यो भगवांस्तदा ॥2॥

तब युध्द में चिन्ताकुल युध्द से थके हुए और युध्द के लिए सामने उपस्थित रावण को देखकर देवताओं से प्रेरित युध्द को देखने के लिए समीप आकर महर्षि अगस्त्य ने श्रीराम से कहा-॥1-2॥

राम! राम! महाबाहो! श्शणु गुह्यं सनातनम् ।

येन सर्वानरीन् वत्स! समरे विजयिष्यसे ॥3॥

हे राम! हे विशालबाहो! जिससे युध्द में सब शत्रुओं को जीता जा सकेगा, हे वत्स! उस गोप्य सनातन (स्तोत्र) को सुनो॥3॥

आदित्य   हृदयं   पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम् ।

जयावहं जपेन्नित्यं अक्षयं परमं शिवम् ॥4॥

आदित्य हृदय स्तोत्र शत्रुविनाशक, पुण्य, अक्षय, परं शिव और जय देने वाला है, उसे नित्य जपना चाहिए॥4॥

सर्वमगल - मागल्यं   सर्वपापप्रणाशनम् ।

चिंता - शोक - प्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तामम् ॥5॥

सर्वमंगलमांगल्यों का करने वाला, सब पापों का शमन करने वाला, चिन्ता शोक हरने वाला और आयु धन बढ़ाने वाला है॥5॥

विनियोग : - ॐ अस्य श्रीआदित्य हृदय स्तोत्रस्यागस्त्य गषि:, अनुष्टुप् छन्द:, आदित्यहृदय भूतो भगवान ब्रह्मा देवता, निरस्ताशेषविघ्तया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वशत्रुक्षयार्थ पूर्वकं सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोग:।

ऋष्यादिन्यास :- अगस्त्य गषये नम: शिरसि। अनुष्टुप् छन्दसे नम: मुखे। आदित्य हृदयभूत ब्रह्मदेवतायै नम: हृदि। ॐ बीजाय नम: गुह्ये। रश्मिमते शक्तये नम: पादयो:। ॐ तत्सवितुरित्यादि गायत्री कीलकाय नम: नाभौ। विनियोगाय नम: सर्वागे।

करन्यास :- इस स्तोत्र के करन्यासादि तीन तरह से हो सकते हैं। केवल प्रणव से, गायत्री मंत्र से अथवा रशिममते इत्यादि छ: नाम मंत्रें से।

ॐ रश्मिते          अंगुष्ठाभ्यां नम:    हृदयाय नम:।

ॐ समुद्यते          तर्जनीभ्यां नम:,   शिरसे स्वाहा।

ॐ देवासुरनमस्कृताय        मध्यमाभ्यां नम:, शिखायै वषट्।

ॐ विवस्वते        अनामिकाभ्यां नम:,          कवचाय हुम्।

ॐ भास्कराय       कनिष्ठिकाभ्यां नम:,          नेत्रत्रयाय वौषट्

ॐ भुवनेश्वराय     करतलकरपश्ष्ठाभ्यां नम:, अस्त्राय फट्।

ततपश्चात मां गायत्री का ध्यान करते हुए गायत्री मंत्र का 11 बार जाप करने के उपरांत इस स्तोत्र का पाठ करें।

स्तोत्र प्रारंभ

रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवाऽसुर - नमस्कृतम्।

पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥1॥

रश्मियों वाले समुद्यत, सुर असुरों से नमस्कृत, विवस्वान् भुवन के स्वामी भास्कर को पूजना चाहिए॥1॥

सर्वदेवात्मको   ह्येष    तेजस्वीरश्मिभावन: ।

एष देव: सुरगणांगोकान् पातु गभस्तिभि: ॥2॥

ये देव सब देवों में लीन, तेजस्वी तथा रश्मिभावन हैं, ये देव सब सुरजनों को और लोकों को अपनी किरणों से रक्षा करें॥2॥

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिव: स्कन्द: प्रजापति: ।

महेन्द्रो धनद: कालो यम: सोमो ह्यपांपाति ॥3॥

ये ही देव ब्रह्मा हैं, विष्णु हैं, शिव हैं, कार्तिकेय, प्रजापति, महेन्द्र हैं, कुबेर हैं, काल हैं, यम हैं, सोम और वरुण हैं॥3॥

पितरो वसव: साध्या अश्विनौ मरुतो मनु: ।

वायुर्वह्नि: प्रजा-प्राणा गतुकर्ता प्रभाकर: ॥4॥

आदित्य: सविता सूर्य: खग: पूषा गभस्तिमान् ।

सुवर्णस्तपनो भानु: स्वर्णरेता दिवाकर: ॥5॥

पितर, वसु, साधय, अश्विनीकुमार, मरुत, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण (प्राणायामादि) गतुकर्ता, प्रभाकर, आदित्य, सविता, सूर्य, खग, पूषा, गभस्तिमान्, सुवर्ण, तपन, भानु, स्वर्णरेता, दिवाकर उन्हीं देव के नाम हैं॥4-5॥

हरिदश्व:      सहस्रार्चि:     सप्तसप्तिर्मरीचिमान् ।

तिमिरोन्मथन: शम्भुस्त्वष्टा र्मातण्डकोऽशुभान् ॥6॥

हिरण्यर्भ:    शिशिररस्तपनो     भास्करो   रवि: ।

अग्निगर्भोऽदिते: पुत्र: शङ्ख: शिशिर नाशन:॥7॥

हरिदश्व, सहस्रार्चि, सप्तसप्ति, मरीचिमान्, तिमिरोन्मथन, शम्भु, त्वष्टा, मार्तण्ड, अंशुमान्, हिरण्यगर्भ, शिशिरतापन, भास्कर, रवि, अग्निगर्भ, अदितिपुत्र, शंख और शिशिरनाशन वे ही हैं॥6-7॥

व्योमनाथस्तमोभेद       गग्यजु:       सामपारग:।

धनवश्ष्टिरपां   मित्रे   बिन्ध्यवीथीप्लवगम: ॥8॥

आतपी मंडली    मृत्यु:    पिगल:   सर्वतापन: ।

कविर्विश्वो    महातेजा रक्त:   सर्वभवोद्भव: ॥9॥

व्योमनाथ, तमोभेद, गक्, यजु, साम, धनवश्ष्टि, जलमित्र, विन्धयावीथी, प्लवंगम, आतपी, मंडली, मृत्यु, पिंगल, सर्वतापन, कवि, विश्व, महातेज, रक्त और सर्वभवोद्भव वे ही हैं॥8-9॥

नक्षत्र - ग्रह - ताराणामधिपो      विश्वभावन: ।

तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ॥10॥

नम:    पूर्वाय     गिरये   पश्चिमायाऽर्द्रये नम: ।

ज्योतिर्गणानां    पतये    दिनाधिपतये   नम: ॥11॥

नक्षत्र ग्रहों, तारों के अधीश वे ही हैं। विश्वभावन, तेजस्वियों में भी तेजस्वी, द्वादशसूर्यात्मन् आपको नमस्कार है। पूर्व गिरि में दश्श्यमान प्रात:कालीन आपको और पश्चिम में हिमाद्रि सायंकाल आपको नमस्कार है। ज्योति प्रकाशकों के स्वामी और दिन के स्वामी आपको नमस्कार है॥10-11॥

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नम: ।

नमोनम: सहस्रांक्षो आदित्याय नमो नम: ॥12॥

नम उग्राय विराय सारगाय नमो नम: ।

नम: पद्मप्रबोधायप्रचंडाय नमोऽस्तु ते ॥13॥

जय और जयभद्र, अर्यश्व, सहस्राक्ष और आदित्य आपको नमस्कार है। उग्र, वीर, सारंग, कमलप्रबोध और प्रचंड आपको नमस्कार है॥12-13॥

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूरायादित्यवर्चसे ।

भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नम: ॥14॥

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायाऽमितात्मने ।

कश्घ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नम: ॥15॥

ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर, आदित्यवर्चस, भास्वत, सर्वभक्ष रौद्र रूप आपको नमस्कार है। तम का नाश करने वाले, हिम को पिघलाने वाले, शत्रु नाशकर्ता, अमितस्वरूप, कृतघ्नों को हनन करने वाले और ज्योतियों (प्रकाशों) के पति उन देव को नमस्कार है॥14-15॥

तप्तचामीकराभाय, हरये विश्वकर्मणे ।

नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥16॥

नाशयत्येष वै भूतं तमेव सश्जति प्रभु: ।

पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभि: ॥17॥

तापकराभा वाले, हरि, विश्वकर्मा, रुचि, लोकसाक्षी नामों वाले तम विनाशक आपको नमस्कार है। ये ही देव भूतों को नष्ट करते और सश्जन करते हैं, ये ही रक्षा करते और तपाते हैं और किरणों से ही वर्षा करते हैं॥16-17॥

एष   सुप्तेषु    जागर्ति     भूतेषु    परिनिष्ठित:

एष चैवाऽग्निहोत्रं च फलं चैवाऽग्निहोत्रिणाम् ॥18॥

देवाश्च  तवश्चैव      तूनां   फलमेव च ।

यानि कश्त्यानि लोकेषु सर्वेषु परम प्रभु: ॥19॥

यही देव प्राणियों में प्रतिष्ठित होकर उन्हें जगाते हैं, और ये ही यज्ञकर्ताओं के यज्ञफल को जन्मते हैं। देवता, कर्मकर्ता और उनका फल सबमें जो भी कश्त्य हैं, सबमें परम प्रभु हैं॥18-19॥

एनमापत्सु कश्च्छे्रषु कान्तारेषु भयेषु च ।

कीर्तयन् पुरुष: कश्चिनवसीदति राघव ॥20॥

हे राम! आपत्तियों, कार्यों, कान्तारों और सब भयों में इन्हीं का कीर्तन करते हुए मनुष्य दुखी नहीं होता है॥20॥

पूजयस्वैनमेकाग्रो        देवदेवं     जगत्पतिम् ।

एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा युध्देषु विजयिष्यसि ॥21॥

इस देवाधिदेव जगत्पति को एकाग्र होकर पूजो, इसे तिगुना जप करके युध्दों में जय प्राप्त करोगे॥21॥

अस्मिन् क्षणे महाबाहो!   रावणं त्वं जहिष्यसि ।

एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ॥22॥

एतच्श्रुत्वा     महातेजा      नष्टशोकोऽभवत्तादा ।

धारयामास सुप्रीतो राघव:   प्रयतात्मवान् ॥23॥

हे महाबाहो! उस क्षण तुम रावण को जीतोगे, ऐसा कहकर अगस्त्य गषि जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। यह सुनकर महातेजस्वी, आत्मस्थ श्रीराम ने प्रसन्न और शोक रहित होकर उसे वैसे ही धारण किया॥22-23॥

स्तोत्र यहीं तक है परन्तु कुछ विद्वानों और मनीषियों ने कुछ और पढ़ते हैं जो इस प्रकार हैं

आदित्यं   प्रेक्ष्य   जपत्वेदं परं हर्षमवाप्तवान् ।

त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥1॥

रावणं प्रेस्य हृष्टात्मा युध्दार्थं समुपागमत् ।

सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धश्तोऽभवत् ॥2॥

तब आदित्य का जप करके यह परम हर्ष उन्होंने प्राप्त किया। और तीन बार आचमन कर पवित्र होकर धनुष लेकर वे वीर्यवान प्रसन्न होकर युध्द हेतु रावण के पास पहुंचे। उसके वधा में सब प्रकार से उन्होंने प्रयत्न किया॥1-2॥

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमना: परमं प्रहृष्यमाण: ।

निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥3॥

तब सूर्य ने श्रीराम को देखकर मुदितमन होकर अत्यन्त तुष्ट होकर राक्षसराज रावण का क्षय जानकर देवों के मधय (आकाश) में स्थित होकर वाणी से स्तवन किया॥3॥

इति वाल्मीकीय रामायणे रामरावण युद्ध परिश्राान्ते अगस्त्य ऋषि कृत आदित्य स्तोत्रं समाप्तम्

नमो नारायणाय